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रविवार, 30 मई 2010

राष्ट्र से विश्वास्घात...

प्रिय साथियों 
आज सुबह अश्विनी कुमार जी का सम्पादकीय पढ़ा मन को छू गया।

भाई गुरूदास जी की एक अद्भुत रचना है, जिसमें इस बात का वर्णन किया गया है कि धरती किसके भार से पीड़ित है। धरती स्वयं पुकार कर कहती है.... "मैं उन पर्वतों के भार से पीडित नहीं हूँ, जिनमें से कई तो इतने ऊँचे हैं कि लगता है आकाश को छू लेंगे। मैं अपनी गोद में बिखरी हुई वनस्पति अर्थात वृक्षों, पौधों और जीव जंतुओं के भार से भी पीड़ित नहीं हूँ, मैं नदियों-नालों, समुद्र किसी के भार से दु:खी नहीं हूँ, लेकिन मेरे ऊपर बोझ है तो सिर्फ उनका जो कृतघ्न हैं, छल करते हैं, विश्वासघाती हैं और जिस राष्ट्र की फिजाओं में सांस लेते हैं, उसी से द्रोह करते हैं...."