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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

Mr. Rohit Anand Performing....Yaad piya ki aaye on flute.

Rag Kaushik Dhawani by Rohit Anand, Key Board by Aman

RAGA : BHOOPALI BY ROHIT ANAND (+playlist)

VRINDAVANI SARANG BY ROHIT ANAND

बुधवार, 11 सितंबर 2013

सिसकते रिश्ते

आफिस से रोज की तरह घर आया। सारा घर सूना सूना लग रहा था । मैने टिफिन का खाली डिब्बा रसोई में रखा और सौरभ के पास चला गया। कुछ देर उसके साथ खेलता रहा । खाना खाने का भी मन नहीं था। इतने में कविता का फोन आ गया । आज कल वो मेरे साथ नहीं रहती दिल्ली में अपनी आंटी के पास रहती है। एक साल होने को आ गया वो बच्चों को लेकर चली गई। मैं दस पन्द्रह दिन में अपने बच्चों से मिलने चला जाता हूँ, और उससे भी मिल लेता हूँ । मुझे तो आज तक ये समझ नहीं आया कि वो मुझे छोड़ कर सिर्फ इसलिए चली गई कि मैं अपने भतीजे सौरभ से प्यार करता हूँ और अपनी माँ को घर का खर्चा देता हूँ । कई बार सोचता हूँ आखिर मेरा कुसूर क्या था?


मुझे वो दिन आज भी याद है जब रोज की तरह कविता ने हंगामा कर दिया। "तुम्हें अपने बच्चों की तो फिक्र है नहीं। वो भी तो अपने पिता के प्यार को तरसते हैं और तुम हो कि सारा वक्त बस सौरभ सौरभ और सौरभ। वो तो अबनार्मल है और अगर मेरे बच्चों पर भी उसका असर हो गया तो। देख लेना एक दिन मैं तो अपने बच्चों को लेकर चली जाऊँगी, फिर तुम बैठे रहना सौरभ के पास।" और उसने जो कहा कर दिखाया। अब कोई सोचे कि एक अबनार्मल बच्चे का दूसरे बच्चे पर कैसे असर होता है। ये कोई छूत का रोग तो है नही पर उसे मै क्या समझाऊँ।  हुआ यूँ कि सौरभ को उस दिन फिर दौरा पडा था और मैं सारी रात उसके सिरहाने बैठा रहा । आखिर मेरे भाई का बेटा है और वो मुझे सबसे ज्यादा प्यार करता है।

अब तो वो मेरी आहट भी पहचानने लगा है । जैसे ही मेरा स्कूटर गली में प्रवेश करता है तो उसके चेहरे पर एक उत्सुकता से भरी मुस्कराहट आ जाती है । यह मेरी पहली जीत थी उस नन्ही सी जान के लिये। वो मेरा नहीं तो क्या हुआ मेरे छोटे भाई का बेटा है। सो मेरा भतीजा हुआ। जन्म से ही उसके मस्तिष्क का विकास नही हो पाया था। पहले तो किसी को कुछ पता ही नहीं चला । या फिर घर की औरतों को सब पता था, बस मुझे ही नहीं बताया गया था । इससे पहले भी भाई के एक बेटा हुआ था और वो जन्म से पहले ही भगवान को प्यारा हो गया था । शायद इतना ही समय ले कर आया था वो इस दुनिया में । और एक साल बाद जब यह खुशखबरी सुनी कि सीता फिर से माँ बनने वाली है तो सारे घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी । पर पता नहीं क्यों मेरी पत्नी कविता शायद मायूस हो गई थी । हालांकि मेरे दो स्वस्थ और खूबसूरत बच्चे हैं । दोनों प्रखर बुद्धि भी हैं । फिर भी न जाने क्यों मुझे कविता के चेहरे से कभी नहीं लगा कि उसे मेरे परिवार के अन्य सदस्यों से कोई सरोकार है या नहीं।

पर मुझे क्या मेरे लिये तो मेरे भाई, बहन, माँ, पत्नी और बच्चे सभी प्रिय हैं । मैं कैसे अपनी माँ, भाई और बहनों को नकार सकता हूँ । मैने तो उन्ही के साथ बढ़ना सीखा है । याद हैं मुझे आज भी वो दिन जब मुझे मेरे पिता छोड़ कर स्वर्ग चले गए थे । मैं काफी छोटा था । उस समय मुझे तो इतना भी नहीं पता था कि मुझे रोना भी है या नहीं । मेरी माँ ने ही मुझे रोना सिखाया था । और फिर उन दिनों के तकलीफों को आज याद करके क्या होगा । मेरी माँ ने किस तरह एक छोटी सी दुकान से ही हमें पाला और पढाया था । यही छोटा भाई था जो केवल मुझ पर ही निर्भर था । और लाडला भी । माँ अकेली थी सो डरती थी कि लड़के कहीं बिगड़ न जाए या इन्हे कुछ हो न जाए सो वो हमें कभी घर से बाहर नहीं जाने देती । बस स्कूल से आना और घर में ही खेलना, यही जिन्दगी थी हमारी । तभी तो हम आज भी माँ से जुड़े हैं । और माँ से दूर जाना तो सपने में भी नहीं सोच सकता । बड़ा बेटा होने के कारण परिवार का बोझ भी मेरे कन्धो पर था सो नौकरी भी जल्दी ही करनी पड़ी । और एक बार जो नौकरी लगी तो फिर कहीं और गया ही नहीं । जैसी भी थी लग तो गई । उस समय कहाँ नौकरियाँ आसानी से मिलती थी।

मेरा भाई हरीश माँ का सबसे लाडला था । बड़ा भाई कमा रहा था सो उसे इतनी चिंता नहीं थी कई बार कोशिश भी की पर शायद किस्मत में नहीं था उसका नौकरी करना सो मां के साथ दुकान पर बैठने लगा और धीरे धीरे उसने दुकान में काफी कुछ बडा लिया था कुछ मशीने रख ली थी और टाईप भी सिखाने लगा था।

खैर छोड़ो इन सब बातों को मुझे तो उस दिन का बेसब्री से इन्तजार था जब कोई खबर आएगी कि क्या हुआ  मेरे भाई के घर में। और फिर वो दिन भी आ गया। मेरी माँ ने बताया कि लड़का हुआ और मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं था। बिल्कुल वैसी ही खुशी थी जैसी कि जब मेरा बेटा हुआ था उस समय हुई थी। पहले कुछ दिन तो लगा कि सौरभ आम बच्चों की ही तरह हैं पर कुछ दिनों बाद जब उसे देखते तो लगता था कि शायद वो उस तरफ ध्यान नहीं दे रहा है । कुछ दिन बाद रूटीन चैक अप के लिए डाक्टर के पास ले गए तो उसने बताया इसकी आँखो मे रोशनी कुछ कम है और शायद दिमाग भी कम है । मेरा तो सिर चकरा गया । उस दिन मैं रात भर सो नहीं सका । सारी रात उस नन्ही सी जान के बारे में सोचते सोचते ही बीत गई।

और इधर मेरी पत्नी सारा दिन अपने रिश्तेदारों से बतियाती रही "देखा आज  फिर उन्होंने मेरा हाथ मरोड दिया। पता नहीं अचानक इन्हें क्या हो जाता है। मुझे तो लगता है कि सीता का बाप आता है न, वो पता नही क्या जादू टोना करता रहता है। जरूर उसने ही कुछ कर दिया है वर्ना पहले तो ये ऐसे नहीं थे।" "अब अगर हाथ पकडे तो तू भी मरोड़ दियो ये आदमी अपने आप को क्या समझते हैं।" आप सोच रहे होगे कि मुझे कैसे पता। यही तो खूबी है मेरी पत्नी में कि उसके पेट में कुछ पचता ही नहीं है कभी न कभी सब कुछ बता देती है चाहे किसी को बुरा लगे या अच्छा ।
कविता से रोज-रोज की नोक-झोंक से मैं तंग आ गया हूँ। सौरभ आज छ: बरस का हो गया है और हर बार कि तरह सभी सोच रहे थे कि उसका जन्मदिन नही मनायेगे क्योंकि जब भी जन्म दिन मनाने की सोचो उसे उस दिन जरूर कुछ हो जाता है। पर हर बार की तरह घर में माँ ने पूजा रखवा ली । और कविता का दिमाग ऊपर से तो खुश रहने कि कोशिश कर रहा था पर न जाने क्यों मुझे देखते ही मुँह फुला लेती । मैंने कहा "चल तैयार हो जा, हवन में बैठना है" मेरा इतना कहना था कि वो तो फट पड़ी "मुझे क्या पता आज हवन है। अब लास्ट मोमेंट पर बताओगे तो इतनी जल्दी कैसे तैयार होऊँगी?" मैंने सहजता से कहा "तो क्या हो गया अब बता दिया तो, मम्मी को नही ध्यान रहा। भूल गई होगी" पर उसे मेरी बात कहाँ समझ में आनी थी, उसे तो आज फिर फड्डा करना था सो जोर जोर से बोलने लगी और उसे हवन में नहीं बैठना था सो नहीं बैठी। मैं भी बिना कुछ बोले माँ के पास चला गया। जब कुछ देर बाद आया तो देखा कि वो तो साडी पहन कर घर से निकलने की तैयारी मैं थी। "मैं घर छोड़ कर जा रही हूँ।" बोली और चली गई।

मेरे तो होश उड गये मैंने दिल्ली उसकी आंटी को फोन किया क्योंकि आज कल उसकी आंटी से बहुत बन रही है, मैने कहा कि उसे समझाओ पता नही कहाँ चली गई है। मैं सारा दिन परेशान रहा हवन क्या होना था एक तरफ कविता की टेंशन और दूसरी तरफ हमेशा की तरह सौरभ को फिर से दौरा पड़ गया और सारा घर उसकी देखभाल में लग गया। शाम को कविता वापिस आ गई। मैंने भी उससे बात नही की । उस रात मैं सौरभ के पास ही अस्पताल में रहा । मुझे तो लगने लगा था कि जब भी यह किसी बात पर सीन क्रिएट करती है तभी घर में कुछ ना कुछ अनचाहा हो जाता है।

अब मेरा मन कविता से ऊबता जा रहा है। हमेशा जो वो चाहती है कर के दिखाती है। मुझे याद है जब उसे रसोई अलग करनी थी तो एक महीने तक रोज चिढ चिढ होती थी घर में। एक दिन तो मैंने उस पर हाथ भी उठा दिया । और उस रात उसने जो ड्रामा किया पूछो नहीं। अपने मायके मैं सब को फोन कर दिया कि मुझे अब यहाँ नहीं रहना ये लोग मुझे मार देगे। उसने अपनी बहन से तो किसी एन जी ओ को भी लाने के लिये कह दिया था। अगले दिन सारे परिवार वाले मेरे आफिस में आ धमके और मुझे खूब बुरा भला कहा। पर घर की इज्जत के लिये मैं कुछ नहीं बोला और खुशी खुशी उसकी बात मान ली और रसोई अलग कर दी।

अब जब रसोई अलग हो गई थी तो सब ठीक हो गया और हम सब खुश रहने लगे। पर ये तो कुछ दिन की खुशी थी अभी छ: महीने भी नही बीते थे कि अब मेरे स्वास्थ्य को लेकर परेशान रहती है। वो भी मेरी ऐसी बात को लेकर जिसे कोई पत्नी बाहर किसी से कभी नहीं कहेगी। कविता और उसकी बहन सारी दुनिया की डाक्टरी तो इन्होने ही की है। आज शादी के 16 साल बाद इन्हें याद आ रहा है कि मुझे पत्नी को सुख देना नही आता। और ये बात कविता ने सारी दुनिया को बता दी है। बताईये कौन पति ये सब सुन कर ग्लानि से नही भर जायेगा। मेरा तो कई बार मन करता है कि मर जाऊँ। पर मर भी नहीं सकता मेरे ऊपर मेरे परिवार की जिम्मेदारी भी तो है। मेरे बाद उनका क्या होगा। यही सोच मुझे मरने भी नही देती। कई बार तो कविता अपने मायके वालो से यह भी कह चुकी है “मेरा या तो तलाक हो जाए या मेरा पति मर जाए” चलो तलाक लेना एक अलग बात है पर बताओ कि कौन भारतीय औरत अपने को विधवा बना देखना चाहेगी?

अब तो मैं बस एक ही बात सोचता हूँ कि किसी तरह सौरभ ठीक हो जाए बस। वो तो मासूम है उसने किसी का क्या बुरा किया है। उसके साथ तो भगवान ने ही इंसाफ नही किया। पर कविता को कौन समझाए। सौरभ को मेरा मोबाईल बहुत पसन्द है मैं भी उसकी पसन्द के गाने भर कर रखता हूँ और अक्सर उसके कान पर लगा देता हूँ। वो बहुत खुश होता है। शायद संगीत उसे पसंद है । और मम्मी भी जब कहती है कि ताऊजी आ गए तो उसकी बांछे खिल जाती है । अब तो मैं सीधे आफिस से आ कर सौरभ के पास चला जाता हूँ। और जब खाने का टाईम होता है तो अपने बेडरूम में आ जाता हूँ । पर बेडरूम में भी अकेला पन खाने को दौड़ता है । वो तो चली गई मुझे छोड़ कर और वहाँ मजे कर रही होगी। यही सोचते सोचते आँख में आँसू भर आते है और सारी रात आँखो में कट जाती है।

मुझे याद आता है कि मेरे बच्चे भी सौरभ के साथ खूब खेलते थे और मेरी बेटी तो दिन भर उसके साथ कुछ न कुछ खेल में लगी रहती। अब मेरी पत्नी साहिबा को यह भी पसन्द नहीं था। वो अक्सर बेटी को डाँटती कि “सौरभ को क्यों उठाती है वो इतना बडा हो गया है और भारी भी अगर तुझे कुछ हो गया तो” अब बताओ कि दोनो ही बच्चे तो हैं और बच्चों को क्या पता वो तो मासूम होते हैं और बिटिया भी तो छोटी ही है अभी केवल नौ साल की।

अब धीरे धीरे मेरा मन अकेले पन में रमने लगा था। पर फिर भी आखिर इंसान हूँ कभी-कभी मन भर आता तो रो लेता। फिर जब रहा नहीं जाता तो मैं कविता की आंटी के यहाँ चला जाता था। बच्चों की याद अक्सर सताती है तो क्या करूँ? एक रात वहाँ रूकता बच्चों के साथ मस्ती करता और फिर बच्चों के उठने से पहले सुबह सुबह मुँह अँधेरे उठ कर वापिस आ जाता था, और क्या करता बच्चों से बिछड़ने के वक्त रोना रोक जो नहीं पाता था। पर मैं हैरान होता हूँ कि कविता को कोई फर्क नहीं पड़ता मैं रोऊँ या हँसू। उसे मेरे आदमी होने के बाद औरतों की तरह रोते देख शायद मज़ा आता होगा।
कविता को गए एक साल के करीब होने को आया। कविता की आदत ऐसी है कि वो छ: महीने से ज्यादा किसी बात पर खुश नही रह सकती और अब उसकी आंटी के घर की भी उसने बुराई शुरू कर दी है । कभी बच्चों के बारे में कहना कि वो उन्हें बेवजह डाँटती रहती है । कभी सफाई के बारे में कभी बच्चों की पढाई के बारे में। मुझे पहले से ही आभास था वो ज्यादा दिन नही रह पाएगी। जब वो यहाँ से गई थी तो यही कह कर गई थी कि अंकल आंटी की डाँट और शिक्षा से दोनों बच्चे सुधर जाएँगे। और आज उसे उनकी डाँट ही बुरी लगती है बेटे को तो उसने इतना लाडला बना दिया है कि उसकी ईगो एक दिन उसे न जाने किस दिशा में ले जाए। उससे न जाने कौन कौन सी बातें करती है। कहती है कि बड़ा हो रहा है सो उसकी सारी जिज्ञासाओं का जवाब देना चाहिए। और इससे उसको भी शह मिल गई है वो न जाने अच्छी बुरी सारी बाते करता रहता है। बच्चे को समझाने का और उसे सेक्स की या दुनिया दारी से अवगत कराने का भी एक तरीका होता है। पर उसे वो सब कुछ समझ नहीं आता। उसे तो वही करना है जो वो चाहती है चाहे अच्छा हो या बुरा।

क्या नहीं किया उसकी आंटी ने पहले तो मैं भी उनको पसंद नहीं करता था। क्योंकि कविता हमेशा उनकी बुराई करती रहती थी सो मैं भी कविता की बातों में आ गया था। और फिर अचानक वही आंटी उसे दुनिया की सबसे बेस्ट आंटी लगने लगी । और क्यों न लगे उन्होंने भी उसकी हर बात मे साथ दिया। कविता को एक और शौक है कि मेरे नाम कुछ प्लाट या घर होना चाहिए । जब कुछ और टोपिक नही मिलता तो इसी बात पर हमारा झगडा होता था कि मम्मी से घर की विल करवा लो वर्ना बाद में कोई पन्गा ना हो । अब कोई समझदार बेटा अपनी माँ से वसीयत की बात कैसे करेगा। वो भी पुराने विचारों वाली माँ से। कविता ने अपने भाई के कहने में आकर मेरे सारे जीवन की जोड़ी हुई कमाई एक फ्लैट खरीदने में लगा दी। और बाद में पता चला कि वो प्रोपर्टी डीलर बेईमान निकला और दो तीन लाख रूपये का घपला कर गया। वो शुक्र है कविता की आंटी का जिन्होंने भाग दौड करके सारे पैसे किसी तरह निकलवा दिये। फिर मेरे बच्चों का एडमिशन अच्छे इंटरनेशनल स्कूल में कराया।

अब मुझे लगने लगा था कि कविता शायद वहाँ खुश रहेगी। चलो खुश रहे कहीं भी रहे मैंने तो उसे प्यार किया सो चाहूँगा कि जहाँ भी रहे खुश रहे। बस एक ही दुख सालता रहता है कि मैं अपने बच्चों से दूर हो गया।

पर जैसा अन्देशा था वही हुआ। अब उसने अपनी आंटी को भी तंग करना शुरू कर दिया। मैं घर में खाली बैठी रहती हूँ। मुझे कुछ काम करना है। मेरे लिए कोई दुकान ही ले दो। वरना मैं रेहडी पर ही दुकान लगा लूँगी । आंटी भी परेशान, करे तो क्या करे। उनके ऊपर पहले ही परेशानियों का पहाड़ है उनके आफिस में भी काफी पोलिटिक्स चल रही है जिसके कारण उन्हें रात को नींद तक नहीं आती और अब कविता की ख्वाहिशें । चलो कैसे ना कैसे करके आंटी ने उसे एक दुकान किराए पर करके दे दी। अब दुकान में सामान डालना उसे सजाना सब काम आंटी और अंकल ने ही किया। फिर धीरे धीरे दुकान चलने लगी। और तो और कुछ प्रोजेक्ट्स इत्यादि भी आंटी ही कभी आफिस से आकर देर रात तक और कभी छुट्टी लेकर पूरे करती ताकि किसी तरह दुकान चल जाए। दुकान की पब्लिसिटी के लिए शनिवार और इतवार को मारे-मारे फिरना। कभी पोस्टर लगाने, कभी बेनर लगाने। बस आंटी लगी ही रहती। और रात को मेरे बच्चों को स्कूल का काम कराने का जिम्मा भी आंटी ने अपने सिर ले लिया था।

इधर मेरे आफिस में भी परेशानियाँ चल रही हैं, ओवर टाईम आदि सब खत्म हो गया है। बहुत थोड़ी तनख्वाह कहते हुए भी हीनता सी महसूस होती है, सो एक्स्ट्रा काम करके जो कमाता था वो बिल्कुल बंद हो गया । पर उसकी आंटी ने हिम्मत नही हारी पहले ही कर्ज का बोझ था और घर का खर्च भी आ पडा था। आंटी अकसर आफिस से छुट्टी करके अक्सर दुकान पर बैठ जाती और शाम को तो मदद कर ही देती। आंटी के कोई बच्चे नहीं है सो उन्हें तो लगा कि उनके घर तीन बच्चे आ गए। क्योंकि कविता भी उनके लिए बच्ची ही हैं और कविता ने भी तो उनका मन जीतने के लिए क्या नही किया खूब मस्ती करती, मजाक करती रहती और आंटी का भी दिल लगा रहता।

आंटी थोडी अनुशासन वाली हैं सो बच्चों को कुछ न कुछ सिखाती रहती हैं । बड़ों के पैर छूओ, सुबह उठ कर छत पर ताजी हवा में जाओ वगैरह वगैरह। और इस में हर्ज ही क्या है। पर जब चार पैसे आने लगे और कविता को लगने लगा कि अब तो दुकान से मैं बच्चों कि फीस भी निकाल सकती हूँ तो उसने आंटी को धीरे धीरे दुकान से हटाना शुरू कर दिया, कहीं आंटी अपनी मेहनत का हिस्सा न मांग ले। कितनी स्वार्थी महिला है ये, जिसने अपनी जी जान से उसकी मदद की और हरदम मदद के लिए तैयार रही उन्हीं से किनारा कर दिया। वो भी बेटे के द्वारा इल्जाम लगवा कर। बेटा तो ऐसा है कि हमेशा माँ की काँख में घुसा रहता है। बिना किसी बात के मुँह बना लेना, बोलना छोड़ देना मेरे बेटे की आदत बन गई है। बिल्कुल माँ की तरह। कविता को भी जब कोई बात मनवानी होती है या बिना किसी बात के लड़ना होता है तो वो अक्सर ऐसे ही करती है। बेटे ने कहना शुरू कर दिया कि आंटी तो हमेशा कुछ न कुछ ताने देती है हर समय पैर ही छुआती रहती है। जबकि ऐसा कुछ नहीं था पर बेटा तो कविता का है न जो वो कहेगी वो भी वही कहेगा। उसकी आदत है कि बच्चों से भी वही करवाती है जो वो चाहती है। आंटी ने भी सोचा चलो कोई बात नहीं अपने आप धीरे-धीरे समझ आ जाएगी। फिर आंटी ने अपने को घर के काम में व्यस्त कर लिया। वो आफिस से जल्दी आने की कोशिश करती ताकि घर पहुँच कर बच्चों को खाना बना कर खिला सके। पहले तो कुछ दिन ठीक चला फिर उसने बच्चों को भी दुकान पर बिठाना शुरू दिया। अब सोचो कि परीक्षा के दिन नजदीक हैं उन्हें खुल कर पढ़ने दे क्या दुकान पर बिठा कर बार-बार ग्राहकों के आने जाने में पढाई कर पाएंगे। और हुआ भी यही जो बच्चे पढ़ाई में हमेशा नम्बर वन थे इस बार के फाईनल में पीछे रह गए। और इसका भी सारा दोष आंटी को ही गया।

इधर सौरभ की भी परेशानियाँ बढती जा रही हैं ज्यों बडा हो रहा है । कमजोर होता जा रहा है। मैं तो इसी परेशानी से नहीं निकल पा रहा हूँ। उसके दौरे पड़ने का टाईम बढ़ता जा रहा है। टांगे बेहद कमजोर होती जा रही हैं। मेरी तो रातों की नींद भी खराब हो गई है। एक तरफ सौरभ की चिंता और दूसरी तरफ मेरी महान पत्नी की परेशानियाँ मै करूँ तो क्या करूँ???

और एक दिन अचानक आंटी के सारे उपकार, सारा प्यार, सारी मेहनत पर पानी फेर कर वो जो आंटी कल तक कविता के लिए सब कुछ थी, जिसके पास रहने के लिये मुझे और मेरे घर को छोडकर चली गई थी ठीक एक साल के बाद उन्हें भी रोता छोड़ कर अपने भाई के घर चली गई। आंटी बहुत गिडगिडाई रोई पर वो कहाँ रूकने  वाली थी उसे अब अपने भाई की खूबियाँ दिखाई दे रही थी। यह वही भाई है जब कविता बच्चों के एडमिशन के लिये या दुकान के लिये परेशान थी तो उसे कोई लेना देना नहीं था। गृह प्रवेश पर या बच्चों के जन्म दिन पर भी कभी किसी मदद को नहीं आया क्योंकि उसकी पत्नी कविता को पसन्द नहीं करती।

इधर अब कविता के अत्याचार आंटी के दिल को छलनी करने लगे। पहले तो आंटी को प्यार के जाल में फँसाया, जब आंटी बच्चों के मोह में डूब गई तो उन पर भी घटिया इल्जाम लगा कर वो औरत चली गई। आज उसे भाई का सहारा अच्छा लग रहा है, भाई बच्चों को विडियो गेम देता है, फिल्में दिखाता है भाभी महंगे महंगे गिफ्ट देती है। आंटी गरीब है, कर्ज में डूबी है। आज उसे भाई की पत्नी भी भा रही है।

पर फिर भी जो कुछ उससे बन पड़ता है उस आंटी ने किया। शाम को आइसक्रीम की ब्रिक ले आना। हफ्ते में एक बार बाहर रेस्टोरेंट ले जाना, सब कुछ तो वो करती है और क्या चाहिए। अंकल अक्सर पिज्जा ले आते और तो और बच्चों के लिए अक्सर नान वेज भी लाते जबकि वो लोग खुद नहीं खाते हैं। क्या पैसा ही सब कुछ है? प्यार की कोई कीमत नहीं? अगर प्यार का मतलब समझोगे तो पता लगेगा कि प्यार का अहसास क्या होता है। मुझे तो फिक्र है समझ नहीं आता कि वो जिंदगी में क्या साबित करना चाहती है। और मेरे बच्चे, मेरे बच्चों का भविष्य का राग अलापने वाली माँ बच्चों को यूँ दर दर भटका कर कौन सा भला कर रही है।

मुझे पूरा यकीन है कि बहुत जल्द ही वो दिन भी आएगा जब भाई भाभी से किसी बात पर अनबन होगी और वो घर भी छोड़ना पड़ेगा। भगवान जाने तब कहाँ जाएगी। और कितने रिश्तों को तार तार करेगी। कितनों को मोह जाल में फँसा कर उनका दिल तोडेगी। कहाँ जा कर रूकेगी इसकी यह दौड़।

बेचारी आंटी ने क्या किया था, वसीयत भी उसके नाम कर दी थी। वो तो हमेशा से कहती कि हमारा क्या है हमारे मरने के बाद सब कुछ कविता के बच्चों का ही है। हमारे तो कोई पीछे रोने वाला भी नहीं है। पर उसे वसीयत नही उसे तो घर की रजिस्ट्री में नाम चाहिए।

अब लगता है कि अच्छा किया वर्ना ये भी हो सकता था कि वो आंटी को ही बेघर कर देती। कब तक उसकी ज़िद के आगे यूँ ही सिसकते रहेंगे रिश्ते, और एक दिन जब तंग आकर बच्चे भी उसे छोड‌ कर चल दिए तो ???

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मेरी नई कहानी पढ़ कर बताएं कैसी लगी?
---प्रकाश टाटा आनन्द




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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

पुरोवाक्
आस किरणों से झिलमिलाते अंधेरे की कवितायें (कालचक)

कालचक्र निरंतर अन्धकार व प्रकाश, जन्म व मरण, निर्माण व विध्वंस तथा सुख व दु:ख के तानों के बीच से गुजरता रहता है । प्रकाश सत्य है या अन्धकार, कर्म जरूरी है या अकर्म अथवा क्यों है निरंतर आलोड़न, प्रकम्पन, गतिशीलता? इन यक्ष प्रश्नों का उत्तर ‘कालचक्र’ काव्य संग्रह की पहली पंक्ति ही दे देती है :-
                   ‘व्यस्तता बन्धन नही भारी मुक्ति है’
यानि निरंतर कर्म करते रहने में ही मुक्ति है। उसमें प्रश्नों के कील बार-बार चुभने नहीं आते बल्कि अनुभूतियों की सुगन्धियाँ और अनुभव के मोती मानव मन की झोली में भरते जाते हैं। संवेदनशील मनुष्य इन्हीं अनुभवों, अनुभूतियों और अंतहीन दु:खों के कांटों पर कहीं-कहीं खिलने वाले फूलों को अपनी चाहत का आधार बना लेते हैं और भावनाओं के उद्रेक को पन्नों पर अक्षरों के रूप में बिखेर देते हैं तो वे कविता बन जाते हैं। ‘कालचक्र’ काव्य संग्रह में कवियित्री प्रकाश टाटा ने प्रकाश व अन्धकार के तानों-बानों से कविता का झिलमिलाता वितान बुन डाला है। कवियित्री अपनी भूमिका में इस आत्मसाक्षात्कार का खुलासा भी करती है कि उसने इस यथार्थ का अनुभव कर लिया है कि अन्धकार ही शाश्वत है, अन्धकार ही सत्य है। प्रकाश तो उसमें आता जाता रहता है। दु:ख के अन्धकार मे सुख का प्रकाश कहीं-कहीं झलक दिखलाता है, झाँक-झाँक जाता है और अगर उस प्रकाश की अनुभूति को हम पकड़ कर रखें तो हम हमेशा प्रकाशमान बने रह सकते हैं। स्मृति की प्रकाश किरणें सुधियों की सुगन्धियाँ हमारे जीवन को आनन्दमय बना सकती हैं।
कवियित्री प्रकाश ने अपने जीवन की अनुभूतियों और अनुभवों की प्रकाश किरणों को पकड़ कर स्वयं को प्रकाशित किया है तो अपने पाठकों को भी आलोकित कर अपने नाम को सार्थक करने का प्रयास किया है। समर्पण की पंक्तियाँ हृदय को पुलकित कर जाती हैं क्योंकि उनमें सभी की भावनाएं निहित हैं, क्योंकि वे माँ को समर्पित है।
         
कोरे काग़ज़ पर छपे अक्षरों को हर कोई पढ़ लेता है
किंतु काग़ज़ की सफेदी को कोई नहीं जानना चाहता;
जिसके न होने से अक्षरों का अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है।

संग्रह में कुछ बहुत सुन्दर छन्द बद्ध गीत हैं जो भाव विभोर करते हैं। पहला गीत है संयोग-वियोग इसमें कवियित्री के उद्वेगों के हाहाकार से उपजी पीड़ा अंतर्मन की ओर मुड़ कर संतुष्ट हो गई लगती है किंतु क्या सत्य उद्घाटित हो पाता है कि वेदना संतुष्ट हो पाती है? पंक्तियाँ देखें:-

          भावुक मन था रोक न पाई, सजा हुआ पलकों में सावन
          संयोग-वियोग की दीवारों पर, बरसे थिरक-थिरक श्याम घन...

          जग में तुझे पा न सकी मैं, तब ढ़ूँढ़ा अंतर्मन के नीचे
          देव तुम्हारा पता तब पाया, हृदय की लहरों ने दृग मीचे ।

पीड़ा का ट्रांसफोर्मेशन हो गया लगता है।
मुक्त छन्द में लिखी बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें आंतरिक छन्द सदैव विद्यमान है। लगभग प्रत्येक कविता के बाद कवियित्री की दार्शनिक टिप्पणी मौजूद है या कविता के भीतर ही उद्घाटित सत्य है : ये टिप्पणियाँ कविताओं को अनोखे ढ़ंग से अलंकृत करती हैं। यह इन कविताओं की विशेषता है। इनमें उस औरत की पीड़ा दर्ज है जो परिवार की जिम्मेदारियाँ खुशी से बिना शिकवा-शिकायत किये निरंतर निभाती चलती है और निजी जिन्दगी के लिये समय ही नहीं बचा । अपनी भावनाओं को सदैव नकारती रही। समय सरकता रहा आक के पंछी उड़-उड़ कर चले जाते रहे फिर भी आँखों में आस के जुगनू झिलमिलाते रहते हैं और कदम किसी अबूझ तलाश में चले जा रहे हैं बौराए से मन के साथ । कुछ पंक्तियाँ देखें:-
          टीस का दर्द:
          मन मृगतृष्णा में ही मग्न था,
          कोई नही वो अपना ही था
          सुख की छाँव का निचला तल था,
          जैसे दीपक तले अन्धेरा
          ऐसे ही दु:ख था वो मेरा

‘कालचक्’ में वह अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को यूँ चित्रित करती है :-
          अब केवल अन्धियारी काली
          निशा छाई है वर्तमान में,
          चाँदनी पड़ी है अत्तीत के
          अन्धे गहवर में
          मगर आस है भावीवश
          कुछ तो होगा एक दिन
          निकलेगा मेरा चाँद फिर से
प्रकाश की कविताओं में प्रकृति के भी बड़े सुन्दर चित्र है तो पारिवारिक संबंधो के तथा त्यौहारों के रंगो की भी अनूठी छवियाँ हैं। कहीं-कहीं कविताएं कोई कथा भी कहती चलती हैं। स्मृतियाँ कहीं टीसती हैं तो कभी अनुलेप लगाती हैं। जब मैं दस बरस की थी, होली, वसंत, पिता की स्मृति तथा श्रद्धांजलि शीर्षक से सुन्दर कविताएं हैं।
इनकी लगभग 53 कविताएं इस संग्रह में हैं। जिनमें निराशा के घने अन्धेरे है, पश्चाताप के आँसू है, कुछ न पाने का दु:ख है, रेत की तरह मुट्ठी से झर गए स्निग्ध, स्नेहिल पलों का दर्द है, पर ये अन्धेरे बजबजाते नहीं, आस की किरणों से जगमगाते हैं। प्रकाश की उज्वलता से लबरेज पाठकों को उजाले से भी भर देते हैं। सब से बड़ी बात, सबसे जुड़ते हैं, सबसे संबंध बनाते हैं। आत्मसाक्षात्कार के मोतियों से झिलमिलाते हैं। सरल, सुबोध पठनीय भाषा में गुंथी भाव सरिताएं विह्वल करती हैं तो रस से अनुप्राणित भी। तथा विचारों की मणियाँ मस्तिष्क को भी प्रदीप्त करती चलती हैं।
          कहाँ से शुरू हुए थे ये सिलसिले
           न शुरू का पता न अंत का

          कहते कहते बौरा गई है कवियित्री पर मैं उसके स्वरों में स्वर मिला कर कहती हूँ :-
          माना कि तिमिर घना है/ अभी तो दीप जला है/ पाना है अन्धेरे में         छिपा सूरज/ दूर बहुत दूर चलना है/ तय करना है परिचय का              सफर/ जो जाता है एक दूसरे की ओर
कविता की दुनिया में इस पुस्तक का स्वागत है । कवियित्री को शुभाशीष हमारा:
          शुरू हुए हैं जो सिलसिले, चलते ही रहेंगे।
          ये कविता के दीये हैं, जलते ही रहेंगे।


                             उर्मिल सत्यभूषण
                             अध्यक्ष, परिचय साहित्य परिषद्, दिल्ली

                             दिनांक : 30.1.2013

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013


               सदा रहे वसंत
नहीं ठिठुरन न जकड़न कोई
फैंकी रजाई, गदूली व लोई
हुआ प्रकृति का रूप निराला
मंद मधु बयार बहे, अब भागा पाला

बौरे आम की अधिक सुखदायी
कुहू-कुहू-कुहुक कोयल की मनभायी
गेंदा, गुलाब, चंपा फूले नहीं समाते
ढाक, सेमर भी फूले चाहे गंधहीन कहाते

पीत वर्ण से चहुँ दिश ढक गई धरती
मानो कोमल नव वधू चली इठलाती
गुंजन करते मधुकर रसपान करते
स्रोतों में पक्षी कलरव गान करते

पिक, चातक, मैना मधुर बोल से
कानों में अमृत सम मधुर रस घोलते
मोर, कपोत, शुक चहुँ ओर से
वृक्षों पर प्रेम मग्न नाचते डोलते

मदन अपने कोमल बाणों से
मृदु मनोभाव सम सुमन खिलाते
प्रिय-प्रियसी स्वछन्द हो गाते
विधाता से माँगते नही अघाते

फूलों से खिलें कभी न हो इसका अंत
                              नही चाहिये शरद-ग्रीष्म सदा रहे वसंत

प्रकाश टाटा आनन्द 
"काल चक्र"
काव्य संग्रह
बसंती प्रकाशन