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शनिवार, 1 मई 2010

संयोग – वियोग....



भावुक मन था रोक न पाई, सजा हुआ पलकों में सावन
संयोग–वियोग की दीवारों पर, बरसे थिरक-थिरक श्याम् घन
याद में तेरी इस बावरी ने, लाखों आँसू हैं बरसाये
मरूथल में खोये अतीत के, संयोग स्मृति में उग आये
बारम्बार चीखता है मन, दृगों से निज कण्ठ मिलाकर
देव तुझे सच पा चुकी हूँ, श्र्द्धा के प्यारे पुष्प चढ़ाकर
जग में तुझे पा न सकी में, तब ढूँढा अन्तर्मन के नीचे
देव ! तुम्हारा पता तब पाया, हृदय की लहरों ने दृग मीचे
-----  प्रकाश टाटा आनन्द -----

चेहरे का प्रकाश

चेहरा बता रहा है कि, रोये हुये से हैं
शायद वो मुश्किलात में खोये हुये हैं


क्या असलियत है इसका, पता चल नहीं सका
आँखे बता रहीं हैं कि, सोये हुये से हैं


बल खा के कह रही है, साहिल से मौज – मौज
कश्ती भँवर में अपनी, डुबोये हुये से हैं


दामन की बात है न ये, अश्कों की बात है
लड़ियों में कुछ सितारे, पिरोये हुये से हैं


काँटों की ये ख़लिश है या, फूलों की रंगो-बू
है नाज़ ये हमारे ही, बोये हुये से हैं


बतला रहा है चेहरे का ‘प्रकाश’ आयना
हर आरज़ू को दिल में, समोये हुये से हैं ।

------------- प्रकाश टाटा आनन्द

नया सफर है अता कर नई डगर मुझको

जुबाँ के साथ जुबाँ का, मिले असर मुझको
तो फिर कहूँ कि मिला है, कोई गुहर मुझको


सभी प गर्दिश-ए,-दौरां ने कहर ढाया है
कि लग रहा है परेशान, हर बशर मुझको


चली ये कैसी हवाएँ, उजड़ गया सब कुछ
भरे चमन में कुछ आता, नहीं नज़र मुझको


ख़िज़ाँ के आते ही मैं, फिर बिछड़ गई तुमसे
तुम्हारे हाल की बिल्कुल नहीं खबर मुझको


इसी उम्मीद प काटी हैं, रात हर ग़म की
पयाम देगी ख़ुशी की, नई सहर मुझको


सफर मैं सख्त मराहिल, का खौफ है बेशक
नया सफर है अता कर, नई डगर मुझको


किया है ख़ुद को हवाले, ‘प्रकाश’ तूफाँ के
न जाने जायेगी लेकर किधर लहर मुझको


प्रकाश टाटा आनन्द
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मेरी पहली ग़ज़ल :- इसका मिसरा उ0 सीमाब सुल्तानपुरी जी के घर पर “हल्का-ए-तश्नगाने महफिल” में दिया गया था । मैंने भी खेल – खेल में कुछ लिख डाला, तब उन्होने मेरे बिखरे हुए अशारों को ठीक किया । मैं उनकी ता-उम्र शुक्रगुजार रहूँगी ।