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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013


               सदा रहे वसंत
नहीं ठिठुरन न जकड़न कोई
फैंकी रजाई, गदूली व लोई
हुआ प्रकृति का रूप निराला
मंद मधु बयार बहे, अब भागा पाला

बौरे आम की अधिक सुखदायी
कुहू-कुहू-कुहुक कोयल की मनभायी
गेंदा, गुलाब, चंपा फूले नहीं समाते
ढाक, सेमर भी फूले चाहे गंधहीन कहाते

पीत वर्ण से चहुँ दिश ढक गई धरती
मानो कोमल नव वधू चली इठलाती
गुंजन करते मधुकर रसपान करते
स्रोतों में पक्षी कलरव गान करते

पिक, चातक, मैना मधुर बोल से
कानों में अमृत सम मधुर रस घोलते
मोर, कपोत, शुक चहुँ ओर से
वृक्षों पर प्रेम मग्न नाचते डोलते

मदन अपने कोमल बाणों से
मृदु मनोभाव सम सुमन खिलाते
प्रिय-प्रियसी स्वछन्द हो गाते
विधाता से माँगते नही अघाते

फूलों से खिलें कभी न हो इसका अंत
                              नही चाहिये शरद-ग्रीष्म सदा रहे वसंत

प्रकाश टाटा आनन्द 
"काल चक्र"
काव्य संग्रह
बसंती प्रकाशन