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रविवार, 25 मई 2014

जब मैं दस बरस की थी !!!

याद है मुझे आज भी
बचपन के वो दिन
जब नुक्कड़ पर
ठंड से ठिठुरता
आ बैठा था एक बूढा
ठठरी सा,बेजान,
माँस विहीन ।

उसकी कीचड़
भरी आँखों में
एक अनबुझ भूख थी
और माँ ने उसे देख
दो रोटी प्याज रख के
दी थी ।

जिन्हें खा-कर
चमक उठी थी
एक तृप्ति उसकी आँखों में
तब वह प्यासा ही
सो गया था ।

मुझे याद है अगले दिवस
स्कूल जाते बच्चों की टोली
और उस ठठरी से
आदमी के बीच ठिठोली ।
बच्चे कभी लाठी छीनते
कभी बालू फैंकते
पर वह हँस रहा था
व अपने कटोरे के
सिक्के गिन रहा था ।

अब वह हिल-मिल
गया था हम सब में
लगे हाथों खचेड़ूनाम
भी दे दिया था हमने।

याद है जब उस रोज़
एक खुजली खाया
कुत्ता आ बैठा था
उसके पास
और खचेड़ू खाता रहा
बासी भात उसके साथ ।

अब वे एक से दो हो गये थे
यूँही कई वर्ष गुज़र गये थे
हमें भी लगता था
कि खचेड़ू के बिना
वह नुक्कड़ किसी
कुँआरी की माँग सा
सूना पड़ा था
जिसे खचेड़ू की
चाहत ने आ भरा था ।

उसने कितनी ही सर्दियाँ
गर्मी व बरसातें
उस नुक्कड़ पर ही
काट दी थीं
और अचानक एक दिवस
कडाके की सर्दी थी
माँ ने उसे चाय
की प्याली में
गर्मी भर के दी थी

इधर रात भर
गर्म बिस्तर पर
करवटें बदलते हुये
मेरा नन्हा सा मन
खचेड़ू के साथ
ठंड में ठिठुरता रहा ।

सोचती रही कि
उसके पास एक
रजाई भी क्यों नहीं है
कैसे बचा पायेगा
वह खुद को इस
शीत रूपी ताड़का से?

सुबह उठी तो
भाग कर पहले
नुक्कड़ पर पहुँची
देखा!!

मैली कुचैली गदूली में
कुत्ता गर्म-गर्म
सांसे ले रहा है
व खचेड़ू
सांसों से आजाद हो
ठण्डा पड़ा है ।

फिर जब लौटी
स्कूल से शाम को
तो वहाँ न कुत्ता था,
न गदूली,
 न कोई चीथड़ा अस्तित्व
नुक्कड़ किसी
विधवा की मांग सा
सूना पड़ा था ।
 ------- प्रकाश टाटा आनन्द, काव्य संग्रह “कालचक्र”

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

प्रकाश के भीतर

मेरे भीतर का अन्धकार
घुप्प अन्धकार
विस्मयकारी अन्धकार
परंतु
शाश्वत... अक्षर...

जैसे-जैसे मैं
भीतर गहरे
उतरती जाती हूँ
भयावह
और भयावह
होता जाता है
मेरे भीतर का अन्धकार

युद्ध की सी
भयानकता
और
शत्रु सा घात लगाए,
मन, मस्तिष्क,
हृदय, बुद्धि
को निस्तेज करता
बैठा है तत्पर
मेरे भीतर का अन्धकार

मैं अस्तित्वहीन
शून्य बनी
चेतना विहीन
धराशायी हो
कर देती हूँ
आत्मसमर्पण ....
तब आत्मसात करता है
मेरी समस्त उर्जा
समस्त सृजन
मेरे भीतर का अन्धकार

नव पल्लव
कुम्हलाए से
नई सम्भावनाओं की
आशा लिए
झोंक देते है,
अपनी चेतना, सारी शक्ति,
तब वह शाश्वत सत्ता
स्वीकारती है भक्ति
और एक टिमटिमाती सी
किरण देख
परास्त हो जाता है
मेरे भीतर का अन्धकार

एक नन्हा सा दीपक
इन्द्रधनुष सी आभा लिए
करता है स्थापित
एक साम्राज्य और
तिमिर करता है
अट्टहास...   तब
शून्य में
विलीन हो जाता है
”प्रकाश” के भीतर का अन्धकार

सर्व विदित, सर्व विजित
होता है एक समर्पण
दीपक के भीतर बैठे
नन्हे से प्रकाश पुंज का
समर्पण
और सदा के लिए
विलुप्त हो जाता है
”प्रकाश” के भीतर बैठा
घुप्प, भयावह अन्धकार
-------
----प्रकाश टाटा आनन्द
काव्य संग्रह "तर्पण" 27.10.2013

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

हरसूँ प्रकाश है....

मैं एक नई दुनिया की बात करती हूँ
हरेक राह के, हर मोड़ से गुजरती हूँ

जश्न मनाती हूँ डूबते हुए सूरज का,
उसे भी हर दिन सलाम करती हूँ

रात भर दहकती हूँ दिये की तरह
तलाश में सुबह की मैं भटकती हूँ

कभी नूर सी चमकती हूँ सितारों में
कभी खुश्बू-ए-गुल को तरसती हूँ

खुद पे नाज करती हूँ देख अक्स अपना
पर आरसी की जुबान कब समझती हूँ

तू मुझे अक्सर वहीं खडा नजर आता है
जब मैं  अपनी हस्ती पे नाज करती हूँ ।

बिना चाँद के हरसूँ “प्रकाश” छाया है
तेरी सूरत से लेकर नूर मैं चमकती हूँ

------- प्रकाश टाटा आनन्द