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सोमवार, 2 जनवरी 2012

भोर

दूर क्षितिज पर संध्या सिंदूर लगाये ,
मन ही मन प्रसन्नता से भर रही है ।
चारों ओर पक्षियों का कलरव ,
रक्तिम कपोल वधू सी लजा रही है।

उसके यौवन के क्या कहने,
आंचल में निशा के सिमटी जा रही है।
पाने को किसी के भाग्य का सूरज ,
क्या-क्या प्रपंच रचा रही है।

और इधर सूरज भी छोड़ पूरब को ,
मदमस्त उधर ही चला जा रहा है।
आँखों में अश्रु, मन बुझा-बुझा सा,
पूरब अपलक उसे निहार रहा है।

पर वह कहाँ है रुकने वाला,
उसे तो केवल अब चलना है।
जलता छोड़ विरह में पूरब को,
पश्चिम को खुशहाल करना है।

सुंदरी संध्या सोलह श्रृंगार कर ,
रूप यौवन से रिझा रही है।
छलनामयी अपने प्रेमी को,
निष्ठुर छलती ही जा रही है।

आखिर छला गया सूरज भी,
कूद गया वह स्वयं आग में।
छोड़ गया था स्वर्ण प्रिय को,
जलना ही था उसके भाग में।

कुछ पल की थी वह खुशहाली
छा गया हर ओर अंधकार।
लाख छटपटाया पर बच न पाया,
कौन सुनता अब उसकी पुकार ।

क्या किया था पूरब ने जो,
छोड़ चला वो पश्चिम ओर।
पर पूरब के द्वार खूले हैं,
फिर लौटा लायेगी कल भोर ......

               ----------------  प्रकाश टाटा आनन्द
                                             31.10.1989