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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

पुरोवाक्
आस किरणों से झिलमिलाते अंधेरे की कवितायें (कालचक)

कालचक्र निरंतर अन्धकार व प्रकाश, जन्म व मरण, निर्माण व विध्वंस तथा सुख व दु:ख के तानों के बीच से गुजरता रहता है । प्रकाश सत्य है या अन्धकार, कर्म जरूरी है या अकर्म अथवा क्यों है निरंतर आलोड़न, प्रकम्पन, गतिशीलता? इन यक्ष प्रश्नों का उत्तर ‘कालचक्र’ काव्य संग्रह की पहली पंक्ति ही दे देती है :-
                   ‘व्यस्तता बन्धन नही भारी मुक्ति है’
यानि निरंतर कर्म करते रहने में ही मुक्ति है। उसमें प्रश्नों के कील बार-बार चुभने नहीं आते बल्कि अनुभूतियों की सुगन्धियाँ और अनुभव के मोती मानव मन की झोली में भरते जाते हैं। संवेदनशील मनुष्य इन्हीं अनुभवों, अनुभूतियों और अंतहीन दु:खों के कांटों पर कहीं-कहीं खिलने वाले फूलों को अपनी चाहत का आधार बना लेते हैं और भावनाओं के उद्रेक को पन्नों पर अक्षरों के रूप में बिखेर देते हैं तो वे कविता बन जाते हैं। ‘कालचक्र’ काव्य संग्रह में कवियित्री प्रकाश टाटा ने प्रकाश व अन्धकार के तानों-बानों से कविता का झिलमिलाता वितान बुन डाला है। कवियित्री अपनी भूमिका में इस आत्मसाक्षात्कार का खुलासा भी करती है कि उसने इस यथार्थ का अनुभव कर लिया है कि अन्धकार ही शाश्वत है, अन्धकार ही सत्य है। प्रकाश तो उसमें आता जाता रहता है। दु:ख के अन्धकार मे सुख का प्रकाश कहीं-कहीं झलक दिखलाता है, झाँक-झाँक जाता है और अगर उस प्रकाश की अनुभूति को हम पकड़ कर रखें तो हम हमेशा प्रकाशमान बने रह सकते हैं। स्मृति की प्रकाश किरणें सुधियों की सुगन्धियाँ हमारे जीवन को आनन्दमय बना सकती हैं।
कवियित्री प्रकाश ने अपने जीवन की अनुभूतियों और अनुभवों की प्रकाश किरणों को पकड़ कर स्वयं को प्रकाशित किया है तो अपने पाठकों को भी आलोकित कर अपने नाम को सार्थक करने का प्रयास किया है। समर्पण की पंक्तियाँ हृदय को पुलकित कर जाती हैं क्योंकि उनमें सभी की भावनाएं निहित हैं, क्योंकि वे माँ को समर्पित है।
         
कोरे काग़ज़ पर छपे अक्षरों को हर कोई पढ़ लेता है
किंतु काग़ज़ की सफेदी को कोई नहीं जानना चाहता;
जिसके न होने से अक्षरों का अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है।

संग्रह में कुछ बहुत सुन्दर छन्द बद्ध गीत हैं जो भाव विभोर करते हैं। पहला गीत है संयोग-वियोग इसमें कवियित्री के उद्वेगों के हाहाकार से उपजी पीड़ा अंतर्मन की ओर मुड़ कर संतुष्ट हो गई लगती है किंतु क्या सत्य उद्घाटित हो पाता है कि वेदना संतुष्ट हो पाती है? पंक्तियाँ देखें:-

          भावुक मन था रोक न पाई, सजा हुआ पलकों में सावन
          संयोग-वियोग की दीवारों पर, बरसे थिरक-थिरक श्याम घन...

          जग में तुझे पा न सकी मैं, तब ढ़ूँढ़ा अंतर्मन के नीचे
          देव तुम्हारा पता तब पाया, हृदय की लहरों ने दृग मीचे ।

पीड़ा का ट्रांसफोर्मेशन हो गया लगता है।
मुक्त छन्द में लिखी बहुत सी कविताएं हैं, जिनमें आंतरिक छन्द सदैव विद्यमान है। लगभग प्रत्येक कविता के बाद कवियित्री की दार्शनिक टिप्पणी मौजूद है या कविता के भीतर ही उद्घाटित सत्य है : ये टिप्पणियाँ कविताओं को अनोखे ढ़ंग से अलंकृत करती हैं। यह इन कविताओं की विशेषता है। इनमें उस औरत की पीड़ा दर्ज है जो परिवार की जिम्मेदारियाँ खुशी से बिना शिकवा-शिकायत किये निरंतर निभाती चलती है और निजी जिन्दगी के लिये समय ही नहीं बचा । अपनी भावनाओं को सदैव नकारती रही। समय सरकता रहा आक के पंछी उड़-उड़ कर चले जाते रहे फिर भी आँखों में आस के जुगनू झिलमिलाते रहते हैं और कदम किसी अबूझ तलाश में चले जा रहे हैं बौराए से मन के साथ । कुछ पंक्तियाँ देखें:-
          टीस का दर्द:
          मन मृगतृष्णा में ही मग्न था,
          कोई नही वो अपना ही था
          सुख की छाँव का निचला तल था,
          जैसे दीपक तले अन्धेरा
          ऐसे ही दु:ख था वो मेरा

‘कालचक्’ में वह अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को यूँ चित्रित करती है :-
          अब केवल अन्धियारी काली
          निशा छाई है वर्तमान में,
          चाँदनी पड़ी है अत्तीत के
          अन्धे गहवर में
          मगर आस है भावीवश
          कुछ तो होगा एक दिन
          निकलेगा मेरा चाँद फिर से
प्रकाश की कविताओं में प्रकृति के भी बड़े सुन्दर चित्र है तो पारिवारिक संबंधो के तथा त्यौहारों के रंगो की भी अनूठी छवियाँ हैं। कहीं-कहीं कविताएं कोई कथा भी कहती चलती हैं। स्मृतियाँ कहीं टीसती हैं तो कभी अनुलेप लगाती हैं। जब मैं दस बरस की थी, होली, वसंत, पिता की स्मृति तथा श्रद्धांजलि शीर्षक से सुन्दर कविताएं हैं।
इनकी लगभग 53 कविताएं इस संग्रह में हैं। जिनमें निराशा के घने अन्धेरे है, पश्चाताप के आँसू है, कुछ न पाने का दु:ख है, रेत की तरह मुट्ठी से झर गए स्निग्ध, स्नेहिल पलों का दर्द है, पर ये अन्धेरे बजबजाते नहीं, आस की किरणों से जगमगाते हैं। प्रकाश की उज्वलता से लबरेज पाठकों को उजाले से भी भर देते हैं। सब से बड़ी बात, सबसे जुड़ते हैं, सबसे संबंध बनाते हैं। आत्मसाक्षात्कार के मोतियों से झिलमिलाते हैं। सरल, सुबोध पठनीय भाषा में गुंथी भाव सरिताएं विह्वल करती हैं तो रस से अनुप्राणित भी। तथा विचारों की मणियाँ मस्तिष्क को भी प्रदीप्त करती चलती हैं।
          कहाँ से शुरू हुए थे ये सिलसिले
           न शुरू का पता न अंत का

          कहते कहते बौरा गई है कवियित्री पर मैं उसके स्वरों में स्वर मिला कर कहती हूँ :-
          माना कि तिमिर घना है/ अभी तो दीप जला है/ पाना है अन्धेरे में         छिपा सूरज/ दूर बहुत दूर चलना है/ तय करना है परिचय का              सफर/ जो जाता है एक दूसरे की ओर
कविता की दुनिया में इस पुस्तक का स्वागत है । कवियित्री को शुभाशीष हमारा:
          शुरू हुए हैं जो सिलसिले, चलते ही रहेंगे।
          ये कविता के दीये हैं, जलते ही रहेंगे।


                             उर्मिल सत्यभूषण
                             अध्यक्ष, परिचय साहित्य परिषद्, दिल्ली

                             दिनांक : 30.1.2013