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शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

चराग़-ए-उल्फत


फिर से बहार के दिन, गुलशन में लौट आये
फिर चटकी बन्द कलियाँ, फिर फूल मुस्कराये

दस्तूर हमने अपने, सारे बदल दिये हैं
मुमकिन नहीं है कोई, अब हमको आजमाये

दुश्वारियाँ सफर में, बेशक हज़ार आई
दो चार ही मुसाफिर, राहों में डगमगाये

रस्में वफा निभाना, अपनी है ज़िन्दगानी
परवाना कैसे शम्म-ए-महफिल को छोड़ जाये

उड़ने लगी है ख़ुद ही, होंठों की मुस्कराहट
देखो जुनूने उल्फत, क्या-क्या असर दिखाये

खोली नहीं है हमने, अपनी ज़बान अब तक
अपने मगर अभी से, होने लगे पराये

‘प्रकाश’ कैसे फैले, नफरत का ये अन्धेरा
हर मोड़ पर चराग़े, उल्फत जो तू जलाये

                                       ---------------- प्रकाश टाटा आनन्द