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सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

ब्रह्म, विवस्वान से अनवरत

मन उद्विग्न सा
निरंतर, अनवरत
एक विचार झरता है –

आँखे, अपलक
निहारती हैं
अश्रु से गला भरता है –

उस सर्वज्ञ का ज्ञेय
अनादि काल से
नदी सागर भरता है –

फिर भी हृदय में
एक प्रश्न बार – बार
कोलाहल करता है –

कैसे कहीं जाये
पँहुचे वहाँ जहाँ
पृथ्वी की पावनता है –

जहाँ सूर्य प्रकाश को
कोई दल-बादल
तम में नहीं बदलता है –

जहाँ बिन बादल
धवल मेह
निर्झर बरसता है –

जहाँ अशरीर
अस्तित्व प्रतिक्षण
सराबोर भीजता है –

जहाँ सोम देव
अहोरात्र धवल
उत्सर्ग बरसता है –

वहाँ विवस्वान भी
दिवा रात्रि
दैदीप्यमान रहता है –

यम भय से अंजान
अंधकार भी
विलुप्त सदा रहता है –

अवतरण लीलाओं का
प्रेक्षापट मेरे समक्ष
प्रकट करो
संदेह दूर करो प्रभो
मन उद्विग्न सा रहता है –

तब शिव ने डम डम
निनाद कर
पालनकर्ता की
अद्भुत लीला का
बखान किया ---


युग युग तक
धर्म रक्षा हेतु
धरा पृष्ठ को जिसने
आसुरी प्रभाव से
मुक्त किया ---

यम भय कम्पित
त्रस्त, आतंकित जग को
अभय दान दे
आशा से तृप्त किया ---

बार-बार धरा पर
मत्स्य, कश्यप से कल्कि तक
स्वयं अवतरण किया ---

ब्रह्मा से मनु और
विवस्वान से पृथापुत्र को
गीता का ज्ञान दिया ---

जन्म मृत्यु जरा व्याधि
के काल चक्र से
जो उसको
जब जान गया ---

क्षण प्रतिक्षण जिसने
मन वाणी बुद्धि
से दर्शन पान किया ---

यही शाश्वत है
आत्मसात कर वह
मोक्ष तक पँहुच गया ---

बोले काम रिपु, हे शैलजा
जो पान कर चुका
गरल हो उसके प्रत्यक्ष
संदेह क्यों होता है ---

वही सर्वज्ञ जो
अवतरण दृष्टा
वही ब्रह्माण्ड जन्मता है ---

अवतरण पर्व
निरंतर होता है जहाँ
वहाँ व्यर्थ उद्विग्नता है ---

इंदु ज्योत्सना
रवि का देदीप्य
वहाँ अनवरत
झरता ही रहता है ---

हे गिरिजा क्या
अब भी है कुछ मान – भान
क्या अब भी मन में
कुछ संदेह पलता है !

--------      प्रकाश टाटा आनंद  29.1.2014

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