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गुरुवार, 22 सितंबर 2011

अब न कभी शरमाऊँगी...


एक बार मिल जाओ प्रिय
अब न कभी शरमाऊँगी....

श्याम् सलोने रूप के प्यासे
नयन कटोरे भर-भर छलके
नींद कहाँ आई केशों तक
बिखरी मेरी पल-पल अलकें
स्वप्न में ही आ जाओ प्रिय
अब न कभी शरमाऊँगी....

रैन बिताई तारे गिन-गिन
दिन बीता और समय चला
पीत वर्ण हो गया समस्त नभ
प्रिय विरहा में सूर्य गला
प्रेम का दीप जलाओ प्रिय
अब न कभी शरमाऊँगी....

चिर प्रतीक्षा में प्रियतम् मेरे
पलकों से पंथ बुहारा था
तुम आये और चले गये
आखिर क्या दोष हमारा था
एक बार फिर आओ प्रिय
 अब न कभी शरमाऊँगी....

देख कर यूँ छवि तुम्हारी
मन वीणा के तार बजे थे
लाज की मारी विरहणी थी
आँचल में भी नयन मुँदे थे
कोई तो समझाओ कि प्रिय
अब न कभी शरमाऊँगी....

लाज का घूँघट आड़े आया
न समझे क्यूँ ढ़लका आँचल
छोड़ चले जलती विरहा में
लाख पुकारा रोई पल-पल
यूँ न छोड़ के जाओ प्रिय
अब न कभी शरमाऊँगी....

तुम क्या जानो कब-कब मैंने
कैसे सहा तुम्हारा जाना
मूक आग्रह घूँघट में था
तुमने उसको न पहिचाना
फिर से मुझे बुलाओ प्रिय
अब न कभी शरमाऊँगी....
                                      -----------प्रकाश टाटा आनन्द (1990)
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1 टिप्पणी:

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत अच्छी कविता| धन्यवाद|