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शुक्रवार, 21 मई 2010

स्वीकार है मुझे लेकिन .....


 प्राक्कथन
हम औरतों को सहना, रोना क्यों अच्छा लगता है? हम चाहे कितना भी पढ़-लिख जायें पर हमारे संस्कार हमें अपनी मिट्टी की सौंधी खुश्बू के पास रखते हैं।

कुछ ही लड़कियाँ होती हैं जो अपने सपनों को सुनहरे पंख देकर इस खुश्बू से दूर जा पाती है, वरना अधिकतर तो गृहस्थी के चक्करों में फंस कर अपनी जीवन भर की पढ़ाई खो बैठती हैं। उनके सपने कब, कहाँ खो जाते हैं? कोई नहीं जानता और न ही जानना चाहता। औरत होने के नाते न तो माँए सोचती है और न ही सासे कि कब एक नाजुक सी कली किस तरह वक्त के साथ समझौता करके पत्थर बन जाती है।

औरतें वक्त के साथ समझौता करते-करते कमजोर हो जाती हैं और किसी न किसी पुरुष के रहम पर जिन्दगी गुजार देती हैं। बचपन में पिता व भाईयों के सहारे, जवानी में पति के रहमोकरम पर और अंत में बेटों के टुकड़ों पर। पर उफ़ ! तक नहीं करती। औरत सबसे ज्यादा असहाय तो तब होती है जब माँ के दिल को ठेस लगती है। और तब कभी-कभी माँ एक ममतामयी माँ चण्डी बन जाती है।

माँ के अनेक रूपों में ढ़लती एक ऐसी औरत की कहानी जो हर वक्त की करवट को स्वीकार करती चली जाती है। इस धारावाहिक के माध्यम से हम नारी के विभिन्न रूपों को, आयामों को दर्शाते हुये ये कहना चाहते हैं कि जहाँ एक तरफ वो तितली की तरह उड़ना चाहती है तो दूसरी तरफ त्याग, बलिदान और ममता की व सहनशीलता की ऐसी प्रतिमा है कि जिसके आगे उसका निर्माता स्वयम् भगवान भी नतमस्तक हो जाता है। और इस श्रद्धा पात्र का मूल्य हम तभी चुका पायेंगे जब हम अपने घर, समाज व देश में उसे सम्पूर्ण सम्मान दे पायें।
प्रकाश टाटा आनन्द
शेष अगले सप्ताह ..... (शुक्रवार को)

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