मन
उद्विग्न सा
निरंतर,
अनवरत
एक
विचार झरता है –
आँखे,
अपलक
निहारती
हैं
अश्रु
से गला भरता है –
उस
सर्वज्ञ का ज्ञेय
अनादि
काल से
नदी
सागर भरता है –
फिर
भी हृदय में
एक
प्रश्न बार – बार
कोलाहल
करता है –
कैसे
कहीं जाये
पँहुचे
वहाँ जहाँ
पृथ्वी
की पावनता है –
जहाँ
सूर्य प्रकाश को
कोई
दल-बादल
तम
में नहीं बदलता है –
जहाँ
बिन बादल
धवल
मेह
निर्झर
बरसता है –
जहाँ
अशरीर
अस्तित्व
प्रतिक्षण
सराबोर
भीजता है –
जहाँ
सोम देव
अहोरात्र
धवल
उत्सर्ग
बरसता है –
वहाँ
विवस्वान भी
दिवा
रात्रि
दैदीप्यमान
रहता है –
यम
भय से अंजान
अंधकार
भी
विलुप्त
सदा रहता है –
अवतरण
लीलाओं का
प्रेक्षापट
मेरे समक्ष
प्रकट
करो
संदेह
दूर करो प्रभो
मन
उद्विग्न सा रहता है –
तब
शिव ने डम डम
निनाद
कर
पालनकर्ता
की
अद्भुत
लीला का
बखान
किया ---
युग
युग तक
धर्म
रक्षा हेतु
धरा
पृष्ठ को जिसने
आसुरी
प्रभाव से
मुक्त
किया ---
यम
भय कम्पित
त्रस्त,
आतंकित जग को
अभय
दान दे
आशा
से तृप्त किया ---
बार-बार
धरा पर
मत्स्य,
कश्यप से कल्कि तक
स्वयं
अवतरण किया ---
ब्रह्मा
से मनु और
विवस्वान
से पृथापुत्र को
गीता
का ज्ञान दिया ---
जन्म
मृत्यु जरा व्याधि
के
काल चक्र से
जो
उसको
जब जान गया ---
जब जान गया ---
क्षण
प्रतिक्षण जिसने
मन
वाणी बुद्धि
से
दर्शन पान किया ---
यही
शाश्वत है
आत्मसात
कर वह
मोक्ष
तक पँहुच गया ---
बोले
काम रिपु,
हे शैलजा
जो
पान कर चुका
गरल
हो उसके प्रत्यक्ष
संदेह
क्यों होता है ---
वही
सर्वज्ञ जो
अवतरण
दृष्टा
वही
ब्रह्माण्ड जन्मता है ---
अवतरण
पर्व
निरंतर
होता है जहाँ
वहाँ
व्यर्थ उद्विग्नता है ---
इंदु
ज्योत्सना
रवि
का देदीप्य
वहाँ
अनवरत
झरता
ही रहता है ---
हे
गिरिजा क्या
अब
भी है कुछ मान – भान
क्या
अब भी मन में
कुछ
संदेह पलता है !
-------- प्रकाश टाटा आनंद 29.1.2014
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