घुप्प अन्धकार
विस्मयकारी अन्धकार
परंतु
शाश्वत... अक्षर...
जैसे-जैसे मैं
भीतर गहरे
उतरती जाती हूँ
भयावह
और भयावह
होता जाता है
मेरे भीतर का अन्धकार
युद्ध की सी
भयानकता
और
शत्रु सा घात लगाए,
मन, मस्तिष्क,
हृदय, बुद्धि
को निस्तेज करता
बैठा है तत्पर
मेरे भीतर का अन्धकार
मैं अस्तित्वहीन
शून्य बनी
चेतना विहीन
धराशायी हो
कर देती हूँ
आत्मसमर्पण ....
तब आत्मसात करता है
मेरी समस्त उर्जा
समस्त सृजन
मेरे भीतर का अन्धकार
नव पल्लव
कुम्हलाए से
नई सम्भावनाओं की
आशा लिए
झोंक देते है,
अपनी चेतना, सारी शक्ति,
तब वह शाश्वत सत्ता
स्वीकारती है भक्ति
और एक टिमटिमाती सी
किरण देख
परास्त हो जाता है
मेरे भीतर का अन्धकार
एक नन्हा सा दीपक
इन्द्रधनुष सी आभा लिए
करता है स्थापित
एक साम्राज्य और
तिमिर करता है
अट्टहास...
तब
शून्य में
विलीन हो जाता है
”प्रकाश” के भीतर का अन्धकार
सर्व विदित, सर्व विजित
होता है एक समर्पण
दीपक के भीतर बैठे
नन्हे से प्रकाश पुंज का
समर्पण
और सदा के लिए
विलुप्त हो जाता है
”प्रकाश” के भीतर बैठा
घुप्प, भयावह अन्धकार
----प्रकाश टाटा आनन्द/ 27.10.2013
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