तुम्हारा अपनी आँखों से
मेरी आँखों के जरिये
मेरे अन्तर में उतर जाना
और झकझोर देना
मेरा तन मन
और फिर
इस तरह मुस्कराना
जैसे कोई ठहरे पानी में
फैंक कंकरी
लहरों का प्रलाप देखे
पर तुम्हें क्या,
तुम्हारा तो ये खेल है
बीतती तो उस शांत पानी पर है
जो बरसों से उर में तूफान छिपाये
पड़ा था प्यासे की राह में
सोचा था लुटा देगा सर्वस्व
प्रिय की चाह में
बीतती तो उस पानी पर है
जिस पर लगती है कंकरी......
---------------प्रकाश टाटा आनन्द
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इस कविता को 90 के दशक में साप्ताहिक हिन्दोस्ताँ पत्रिका में महोदया मृणाल पाण्डे जी के सरंक्षण में मुद्रित होने का अवसर प्राप्त हुआ।