याद है मुझे आज भी
बचपन के वो दिन
जब नुक्कड़ पर
ठंड से ठिठुरता
आ बैठा था एक बूढा
ठठरी सा,बेजान,
माँस विहीन ।
उसकी कीचड़
भरी आँखों में
एक अनबुझ भूख थी
और माँ ने उसे देख
दो रोटी प्याज रख के
दी थी ।
जिन्हें खा-कर
चमक उठी थी
एक तृप्ति उसकी आँखों में
तब वह प्यासा ही
सो गया था ।
मुझे याद है अगले दिवस
स्कूल जाते बच्चों की टोली
और उस ठठरी से
आदमी के बीच ठिठोली ।
बच्चे कभी लाठी छीनते
कभी बालू फैंकते
पर वह हँस रहा था
व अपने कटोरे के
सिक्के गिन रहा था ।
अब वह हिल-मिल
गया था हम सब में
लगे हाथों ‘खचेड़ू’ नाम
भी दे दिया था हमने।
याद है जब उस रोज़
एक खुजली खाया
कुत्ता आ बैठा था
उसके पास
और खचेड़ू खाता रहा
बासी भात उसके साथ ।
अब वे एक से दो हो गये थे
यूँही कई वर्ष गुज़र गये थे
हमें भी लगता था
कि खचेड़ू के बिना
वह नुक्कड़ किसी
कुँआरी की माँग सा
सूना पड़ा था
जिसे खचेड़ू की
चाहत ने आ भरा था ।
उसने कितनी ही सर्दियाँ
गर्मी व बरसातें
उस नुक्कड़ पर ही
काट दी थीं
और अचानक एक दिवस
कडाके की सर्दी थी
माँ ने उसे चाय
की प्याली में
गर्मी भर के दी थी
इधर रात भर
गर्म बिस्तर पर
करवटें बदलते हुये
मेरा नन्हा सा मन
खचेड़ू के साथ
ठंड में ठिठुरता रहा ।
सोचती रही कि
उसके पास एक
रजाई भी क्यों नहीं है
कैसे बचा पायेगा
वह खुद को इस
शीत रूपी ताड़का से?
सुबह उठी तो
भाग कर पहले
नुक्कड़ पर पहुँची
देखा!!
मैली कुचैली गदूली में
कुत्ता गर्म-गर्म
सांसे ले रहा है
व खचेड़ू
सांसों से आजाद हो
ठण्डा पड़ा है ।
फिर जब लौटी
स्कूल से शाम को
तो वहाँ न कुत्ता था,
न गदूली,
न कोई चीथड़ा
अस्तित्व
नुक्कड़ किसी
विधवा की मांग सा
सूना पड़ा था ।
------- प्रकाश टाटा आनन्द, काव्य संग्रह “कालचक्र”