शनिवार, 18 जुलाई 2015
सोमवार, 2 फ़रवरी 2015
ब्रह्म, विवस्वान से अनवरत
मन
उद्विग्न सा
निरंतर,
अनवरत
एक
विचार झरता है –
आँखे,
अपलक
निहारती
हैं
अश्रु
से गला भरता है –
उस
सर्वज्ञ का ज्ञेय
अनादि
काल से
नदी
सागर भरता है –
फिर
भी हृदय में
एक
प्रश्न बार – बार
कोलाहल
करता है –
कैसे
कहीं जाये
पँहुचे
वहाँ जहाँ
पृथ्वी
की पावनता है –
जहाँ
सूर्य प्रकाश को
कोई
दल-बादल
तम
में नहीं बदलता है –
जहाँ
बिन बादल
धवल
मेह
निर्झर
बरसता है –
जहाँ
अशरीर
अस्तित्व
प्रतिक्षण
सराबोर
भीजता है –
जहाँ
सोम देव
अहोरात्र
धवल
उत्सर्ग
बरसता है –
वहाँ
विवस्वान भी
दिवा
रात्रि
दैदीप्यमान
रहता है –
यम
भय से अंजान
अंधकार
भी
विलुप्त
सदा रहता है –
अवतरण
लीलाओं का
प्रेक्षापट
मेरे समक्ष
प्रकट
करो
संदेह
दूर करो प्रभो
मन
उद्विग्न सा रहता है –
तब
शिव ने डम डम
निनाद
कर
पालनकर्ता
की
अद्भुत
लीला का
बखान
किया ---
युग
युग तक
धर्म
रक्षा हेतु
धरा
पृष्ठ को जिसने
आसुरी
प्रभाव से
मुक्त
किया ---
यम
भय कम्पित
त्रस्त,
आतंकित जग को
अभय
दान दे
आशा
से तृप्त किया ---
बार-बार
धरा पर
मत्स्य,
कश्यप से कल्कि तक
स्वयं
अवतरण किया ---
ब्रह्मा
से मनु और
विवस्वान
से पृथापुत्र को
गीता
का ज्ञान दिया ---
जन्म
मृत्यु जरा व्याधि
के
काल चक्र से
जो
उसको
जब जान गया ---
जब जान गया ---
क्षण
प्रतिक्षण जिसने
मन
वाणी बुद्धि
से
दर्शन पान किया ---
यही
शाश्वत है
आत्मसात
कर वह
मोक्ष
तक पँहुच गया ---
बोले
काम रिपु,
हे शैलजा
जो
पान कर चुका
गरल
हो उसके प्रत्यक्ष
संदेह
क्यों होता है ---
वही
सर्वज्ञ जो
अवतरण
दृष्टा
वही
ब्रह्माण्ड जन्मता है ---
अवतरण
पर्व
निरंतर
होता है जहाँ
वहाँ
व्यर्थ उद्विग्नता है ---
इंदु
ज्योत्सना
रवि
का देदीप्य
वहाँ
अनवरत
झरता
ही रहता है ---
हे
गिरिजा क्या
अब
भी है कुछ मान – भान
क्या
अब भी मन में
कुछ
संदेह पलता है !
-------- प्रकाश टाटा आनंद 29.1.2014
शुक्रवार, 30 जनवरी 2015
प्रकाश के भीतर
घुप्प अन्धकार
विस्मयकारी अन्धकार
परंतु
शाश्वत... अक्षर...
जैसे-जैसे मैं
भीतर गहरे
उतरती जाती हूँ
भयावह
और भयावह
होता जाता है
मेरे भीतर का अन्धकार
युद्ध की सी
भयानकता
और
शत्रु सा घात लगाए,
मन, मस्तिष्क,
हृदय, बुद्धि
को निस्तेज करता
बैठा है तत्पर
मेरे भीतर का अन्धकार
मैं अस्तित्वहीन
शून्य बनी
चेतना विहीन
धराशायी हो
कर देती हूँ
आत्मसमर्पण ....
तब आत्मसात करता है
मेरी समस्त उर्जा
समस्त सृजन
मेरे भीतर का अन्धकार
नव पल्लव
कुम्हलाए से
नई सम्भावनाओं की
आशा लिए
झोंक देते है,
अपनी चेतना, सारी शक्ति,
तब वह शाश्वत सत्ता
स्वीकारती है भक्ति
और एक टिमटिमाती सी
किरण देख
परास्त हो जाता है
मेरे भीतर का अन्धकार
एक नन्हा सा दीपक
इन्द्रधनुष सी आभा लिए
करता है स्थापित
एक साम्राज्य और
तिमिर करता है
अट्टहास...
तब
शून्य में
विलीन हो जाता है
”प्रकाश” के भीतर का अन्धकार
सर्व विदित, सर्व विजित
होता है एक समर्पण
दीपक के भीतर बैठे
नन्हे से प्रकाश पुंज का
समर्पण
और सदा के लिए
विलुप्त हो जाता है
”प्रकाश” के भीतर बैठा
घुप्प, भयावह अन्धकार
----प्रकाश टाटा आनन्द/ 27.10.2013
सोमवार, 19 जनवरी 2015
Flute Recital by Rohit Anand
Dear Friends and Rasikas,
Please join us to have an ANAND of meditative flute recital by Rohit Anand,
Hazrat Sufi Inayat Khan Urs Festival 2015
Wednesday, February 4th 2015, 9:30 am
*For more information and programmes visit at following link.*
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