भावुक मन था रोक न पाई, सजा हुआ पलकों में सावन
संयोग–वियोग की दीवारों पर, बरसे थिरक-थिरक श्याम् घन
याद में तेरी इस बावरी ने, लाखों आँसू हैं बरसाये
मरूथल में खोये अतीत के, संयोग स्मृति में उग आये
बारम्बार चीखता है मन, दृगों से निज कण्ठ मिलाकर
देव तुझे सच पा चुकी हूँ, श्र्द्धा के प्यारे पुष्प चढ़ाकर
जग में तुझे पा न सकी में, तब ढूँढा अन्तर्मन के नीचे
देव ! तुम्हारा पता तब पाया, हृदय की लहरों ने दृग मीचे
----- प्रकाश टाटा आनन्द -----
1 टिप्पणी:
wonderful thoughts very near to nature.
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