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शनिवार, 1 मई 2010

नया सफर है अता कर नई डगर मुझको

जुबाँ के साथ जुबाँ का, मिले असर मुझको
तो फिर कहूँ कि मिला है, कोई गुहर मुझको


सभी प गर्दिश-ए,-दौरां ने कहर ढाया है
कि लग रहा है परेशान, हर बशर मुझको


चली ये कैसी हवाएँ, उजड़ गया सब कुछ
भरे चमन में कुछ आता, नहीं नज़र मुझको


ख़िज़ाँ के आते ही मैं, फिर बिछड़ गई तुमसे
तुम्हारे हाल की बिल्कुल नहीं खबर मुझको


इसी उम्मीद प काटी हैं, रात हर ग़म की
पयाम देगी ख़ुशी की, नई सहर मुझको


सफर मैं सख्त मराहिल, का खौफ है बेशक
नया सफर है अता कर, नई डगर मुझको


किया है ख़ुद को हवाले, ‘प्रकाश’ तूफाँ के
न जाने जायेगी लेकर किधर लहर मुझको


प्रकाश टाटा आनन्द
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मेरी पहली ग़ज़ल :- इसका मिसरा उ0 सीमाब सुल्तानपुरी जी के घर पर “हल्का-ए-तश्नगाने महफिल” में दिया गया था । मैंने भी खेल – खेल में कुछ लिख डाला, तब उन्होने मेरे बिखरे हुए अशारों को ठीक किया । मैं उनकी ता-उम्र शुक्रगुजार रहूँगी ।

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