एक दिन मैं अपनी पुरानी डायरियों के पन्ने पलट रही थी कि अचानक मेरे हाथ 1983 की डायरी लगी। मन पुरानी यादों में खो गया। मेरे एक भाई बम्बई में पिताजी के साथ रहते थे और जब भी दिल्ली आते तो रेलवे स्टेशन से ओम प्रकाश शर्मा जी का उपन्यास रास्ते में पढने के लिये खरीदते। और दिल्ली ही छोड़ जाते थे। उनके जाने के बाद मैं उन्हें पढा करती थी। और यूँ ही पढते पढते मुझे लत लग गई। मैंने अनेकों जासूसी उपन्यास पढ डाले। फिर तो मैं स्वयं भी खरीद कर पढने लगी।
एक दिन मेरे हाथ शर्माजी का "पी कहाँ" लगा, और जो मैं अब तक समझती थी कि शर्माजी केवल जासूसी नावल ही लिखते है इस उपन्यास ने तो मेरी जिन्दगी ही बदल डाली। और मैं भी कुछ कुछ लिखने लगी। मैंने अनेकों कविताएँ लिख डाली, यही कारण था कि बी. ए. में इतिहास पढा था पर एम. ए. हिन्दी साहित्य में किया। तो "पी कहाँ" से ली गई कुछ पंक्तियाँ यहाँ लिखती हूँ जिन्हें देख कर मैंने उपरोक्त यादें आप से ताज़ा की।
ये इस प्रकार है:----
मैं रात-रात भर दहूँ, और तू काजल आँज-आँज सोये ॥
तेरे घर केवल दिया जले, मेरे घर दीपक भी मैं भी।
भटकूँ तेरी राहें बाँधे, पैरों में भी पलकों में भी।
मैं आँसू-आँसू बहूँ तू बादल ओढ़-ओढ़ सोये ॥
बासी भोर टूटी साँझे, कच्चे धागों जैसी नींदे।
बैचेन कंटीले अंधियारे, पैनी यादें तनमन बींधे।
मैं खण्डहर-खण्डहर ढहूँ, और तू अलकें गूँथ-गूँथ सोये ॥
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किसी राधिका के मनहर की बाज उठी बाँसुरिया,
पंथ निहारत बिरहन कोई छलकत नयन गगरिया ।
जब जब पंख पखेरू लौटे नीड़ सांझ घिर आई,
जब जब गायें कृषक मलहारें याद तुम्हारी आई ॥ ..........
मेरा इस ब्लाग को पढ़ने वालों से अनुरोध है कि यदि किसी को शर्मा जी का "पी कहाँ" मिल जाये तो मुझे अवश्य बतायें। और भी बहुत कुछ है फिर लिखूँगी ....
रविवार, 9 मई 2010
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1 टिप्पणी:
ab kya likhen hame to ye pata hi naa tha
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